आश्रम में ये उनकी पहली सुबह थी. स्वामी अखंडानंद सुबह 4 बजे ही उठ जाते थे. उन्होंने एक शिष्य रघुवीर से पूछा गोलवलकर कहां हैं? रघुवीर का जवाब था- वो अभी सो रहा है. स्वामी का जवाब था या सवाल था, “ऐसा सोता आदमी जीवन में क्या हासिल कर पाएगा”. जब माधव को जगाकर रघुवीर ने ये वाकया बताया तो उनकी हालत देखने लायक थी, पहले ही दिन ऐसा व्यंग्यात्मक वचन. माधव को अपने आलस पर बहुत ही गुस्सा आया, मन में प्रण किया कि आगे से ऐसा नहीं होने दूंगा. और पढ़ें
स्वामी अखंडानंद यानी गुरु गोलवलकर के गुरु, जिनसे उन्होंने संन्यास और ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली थी स्वामी विवेकानंद के गुरु भाई थे. कभी के गंगाधर घटक और बाद के अखंडानंद. रामकृष्ण मिशन के तीसरे अध्यक्ष थे, लेकिन स्वामी विवेकानंद की उक्ति कि निर्धन को भगवान मानो, को मन से बांध लिया था. अध्यक्ष बनने के बाद भी मिशन के मुख्यालय बेलूर मठ कभी कभी ही जाते थे. बंगाल के अंदरूनी ग्रामीण इलाके के अपने सारागाछी आश्रम में ही रहना पसंद करते थे. उनके देसी विदेशी भक्त उनसे यहीं मिलते आते थे. ऐसे में माधव यानी गुरु गोलवलकर ने जब डॉ हेडगेवार को बिना बताए 1936 में उनका साथ छोड़ा तो वो सीधे यहीं आए. माधव लगातार नागपुर के रामकृष्ण मिशन में जाते रहते थे. लेकिन अब दीक्षा लेने की चाह थी, उसे वो स्वामी अखंडानंद से ही लेना चाहते थे.
जब गुरु गोलवलकर को दिया गया बर्तन सफाई और मंदिर धुलाई का काम
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लेकिन पहले दिन ही स्वामीजी की नजरों में आ गए, यूं स्वामीजी की नजर आश्रम के हर सदस्य पर बराबर रहती थी, वो संन्यासियों के लिए कठोर नियमों के समर्थक थे. स्वामीजी किसी को भी खाली बैठे नहीं देख सकते थे और जिसको जो काम दिया, उसकी निगरानी भी रखते थे. कुछ दिन बाद अश्विनी अमावस्या और काली पूजा का दिन था, उन्होंने पूजा के दौरान जितने धार्मिक रीति रिवाज क्रियाएं होती हैं, उनकी जिम्मेदारी अपने शिष्य विभूति चैतन्य को सौंपी और उसकी तैयारियों की जिम्मेदारी माधव को दे दीं.
स्वामीजी इस साल सब धूमधाम से करना चाहते थे, क्योंकि साल 1936 उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का शताब्दी वर्ष था. माधव का काम था कि पूजा के लिए सब कुछ तैयार रखना, और पूजा के बाद सब कुछ हटाकर जगह साफ करना. इसमें रसोई के बर्तनों को साफ करने से लेकर मंदिर की धुलाई तक शामिल थी. उन्होंने मन से वो सब किया.
मंगल आरती के बाद एक दिन स्वामी अखंडानंद जी ने सामान्य तौर पर जब सबको ये कहा कि, “पूजा से जुड़े सारे काम सच्ची पूजा माने जाते हैं. उन सबको पूरे मन से करना चाहिए, चाहे वो फूल चुनना हो, पूजा कक्ष को झाड़ू लगाना हो, फर्श को धोना हो, बर्तनों को साफ करना हो, फलों का इंतजाम करना हो, सभी काम करते वक्त मंत्र पढ़ते रहना चाहिए और अपने हृदय में भगवान को रख उनके बारे में ही सोचते रहना चाहिए”. तो गुरु गोलवलकर ने मान लिया कि वो अप्रत्यक्ष रूप से उनकी ही तारीफ कर रहे हैं.
वह मन में बेहद खुश थे उस दिन कि मेरे गुरु को मेरी मेहनत का भान हुआ. बाद में विभूति से बाबा ने पूछा भी था कि कैसा लगा वो वकील स्वयंसेवक? तो विभूति ने भी उनकी जमकर तारीफ की कि वो काम करते वक्त खुद को भूल जाता है. इस तरह अपने गुरु की नजरों में बेहतर होते जा रहे थे गोलवलकर, जिनके लिए वो डॉ हेडगेवार का साथ छोड़कर आए थे.
एक दिन स्वामीजी ने उन्हें कहा, “अरे मेरा शरीर कमजोर होता जा रहा है, जरा इसका भी ध्यान रखो”. उनका तो मानो सपना ही पूरा हो गया था कि बाबा ने उन्हें अपनी व्यक्तिगत सेवा के लिए चुना है. एक दिन जब उनकी मालिश करते वक्त माधव का हाथ फिसल गया तो पास में रखा बाबा का वो कप टूट गया, जो उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय था. बाबा की प्रतिक्रिया थी, “ध्यान रखो, जल्दबाजी मत करो. ये एक अच्छा कप था, क्या तुम्हें चोट भी लगी है?”
बाबा कब क्या कहेंगे किसी को अंदाजा नहीं होता था, तभी तो जब माधव ने स्टोर में जाने की जल्दी में अपने पैर में चोट लगा ली, खून निकलने लगा लेकिन बाबा ने इस बार कोई दया नहीं दिखाई कहा, “तुम देखते क्यों नहीं हो कि तुम कहां जा रहे हो? पहले अपनी गलती देखो”,
कैसे 36 साल छुपाए रखा गुरु गोलवलकर ने आश्रम का ये राज
आपको ये जानकर हैरत होगी कि 1936 की ये सब बातें दुनियां को पूरे 67 साल तक नहीं पता थीं. गुरु गोलवलकर और स्वामी अखंडानंदजी के अलावा कुल 4-5 शिष्यों को ही पता थीं. इसके पीछे की कहानी रंगा हरि अपनी किताब “The Incomparable Guruji’ में बताते हैं. गुरु गोलवलकर ने जब से संघ में वापसी की थी, कभी भी अपने गुरु अखंडानंद या उनके आश्रम में बिताए इन दिनों की कोई चर्चा नहीं की थी. ना कभी किसी लेख में लिखते थे, ना किसी इंटरव्यू या भाषण में बोलते थे और ना ही किसी से अनौपचारिक बातचीत में भी बोलते थे. लेकिन ये सारी बातें वो अपनी डायरियों में लिखते रहे थे,
ये डायरियां या नोट्स उन्होंने जिंदगी भर किसी को नहीं दिखाए, वहां से आने के बाद वो 36 वर्षों तक जिए, लेकिन किसी से चर्चा नहीं की. इन डायरियों को किसी से छुपाया भी नहीं, उनके कक्ष की अलमारी के एक कोने में पड़े रहे, यहां तक कि उनकी मृत्यु के बाद भी, लेकिन किसी ने उन्हें नहीं छुआ. लेकिन जब 2003 में उनसे जुड़े सारे साहित्य को एक जगह लाने के लिए शोध कार्य़क्रम शुरू हुआ तो इनको पढ़ा गया. सारागाछी आश्रम से जुड़ी उनकी सारी यादें श्री गुरुजी समग्र के 6ठे भाग में पढ़ सकते हैं. हालांकि शोध के दौरान उनके साथ रहे सारे गुरु भाइयों के साक्षात्कारों, लेखों आदि को भी खंगाला गया था. कुल 4 महीने गुरु गोलवलकर इस आश्रम में रहे थे, लेकिन इस दौरान की यादें उनके आम जीवन से काफी अलग थीं.
ऑस्ट्रिया का एयरोनॉटिकल इंजीनियर प्रेमिका की मौत के बाद बना बाबा का भक्त
उनके साथ जो संन्यासी गुरु भाई वहां रह रहे थे, उनमें परम चैतन्य, विभूति चैतन्य, आनंद चैतन्य, रघुवीर और गोपाल प्रमुख थे. इनमें से परम चैतन्य की कहानी काफी दिलचस्प थी, उनका जन्म का नाम फिलिप्स था. वह ऑस्टिया का एयरोनॉटिकल इंजीनियर था और पहले विश्व युद्ध में भाग ले चुका था. उसके बाद अमेरिका में रहने लगा था. उसकी प्रेमिका कैलीफोर्निया में एक बांध के टूटने की वजह से चपेट में आकर मर गई, तो इसका बड़ा आघात उसके हृदय पर लगा था. उसने मन की शांति के लिए बोस्टन के वेदांता आश्रम में शरण मांगी. उस वक्त उस आश्रम के प्रभारी स्वामी परमानंद थे, उन्होंने उसे भारत के बैलूर मठ भेज दिया. लेकिन वो स्वामीजी की शरण में सारागाछी आ गया तो स्वामी जी ने उसे दीक्षा दी और ब्रह्मचर्य की शपथ दिलवाई. फिलिप्स का नाम बदलकर कर दिया गया परम चैतन्य. बाद में रघुवीर का नाम बदलकर तुरीया चैतन्य किया, जो बाद में स्वामी राघवानंद हो गए. विभूति चैतन्य बाद में स्वामी निर्मयानंद के नाम से जाने गए. आनंद चैतन्य जिनका मूल नाम अमिताभ महाराज था, संन्यास के बाद स्वामी अमूर्तानंद हो गए.
दीक्षा देने के लिए गुरु ने ‘हां’ की तो रोने लगे थे गुरु गोलवलकर
इधर बाबा की तबियत खराब रहने लगी थी. अमिताभ ने एक बार गोलवलकर को चेताया कि दीक्षा की बात कर लो उनसे, लेकिन उनकी बाबा से बात करने की हिम्मत ही नहीं होती. उन्होंने अपनी इस ऊहापोह के बारे में विस्तार से लिखा है. बड़ी मुश्किल से वो यही कह पाए कि महाराज जी, मुझे कब आपका आशीर्वाद मिलेगा? इस पर बाबा ने जबाव दिया कि 10 से 12 दिन की छुट्टियां हैं, कुछ और शिष्य आश्रम में आएंगे, उनके साथ ही आपकी दीक्षा भी हो जाएगी. गुरु गोलवलकर ने इस जवाब पर अपने अंदर की प्रतिक्रिया के बारे में जैसे लिखा है, उतनी खुशी उनके जीवन में शायद ही कोई दूसरी लगे. उस वक्त तो वो बस जय प्रभु कहकर भीगती आंखों के साथ चले गए थे. गुरु गोलवलकर ने लिखा है कि बाबा ने श्लोक पढ़ना शुरू कर दिया और मैं जाते जाते रो रहा था.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी बाबा ने उन्हें 12 जनवरी को जब ये बताया कि कल मकर संक्रांति के दिन तुम्हारी दीक्षा होगी, आज व्रत रख लेना. स्वामी विवेकानंद जी का जन्मदिन भी था सो माधव की खुशी का ठिकाना ही नहीं था, उनके आश्रम में आने का मनोरथ अब जाकर पूरा होने जा रहा था. उस वक्त देश के सबसे बड़े जो संत थे, उनमें अखंडानंद जी नाम प्रमुख था, रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष के तौर पर देश दुनिया में उनका काफी सम्मान था. ॉ
कई साल हिमालय पर गुजारने के बाद देश भ्रमण और शास्त्रों की पढ़ाई से ज्ञान और तर्कों के मामले में उनके सामने कोई टिकता नहीं था. ऐसे विद्वान संत से दीक्षा उनके लिए वाकई में गौरव की बात थी. गुरु गोलवलकर ने अपने इस दिन के अनुभव के बारे में लिखा, “ऐसा पवित्र दिन मैंने जीवन में कभी नहीं देखा था. ये महानतम दिन था. इसे शब्दो में नहीं लिखा जा सकता. मैं अब वो नहीं रह गया था- जो पहले था”.
गुरु गोलवलकर ने 36 साल तक बाल नहीं कटवाए
स्वामी अखंडानंद के विदेशी चाहने वाले भी कम भावुक नहीं थे. दो अमेरिकी लड़कियां आश्रम में उनके लिए ह्वील चेयर लेकर आईं थी, उन्हें आश्रम घुमाने अक्सर रघुवीर ले जाता था. एक दिन बाबा ह्वील चेयर पर बैठकर आराम कर रहे थे, माधव ने उनके लिए सुबह का जलपान तैयार किया. उस दिन बाबा खुश लग रहे थे. माधव के चेहरे को ध्यान से देखने लगे. पिछले ढाई महीनों में माधव के बाल काफी लम्बे हो गए थे, कटवा नहीं पाए थे. माधव को कहा कि पास बैठो, वो बैठ गए, तो उनके बालों को हाथ में लेकर बोले, ‘ये बाल तुम्हारे ऊपर बड़े सुंदर लगते हैं, याद रखना कभी कटवाना नहीं है”. गुरु का आदेश मतलब प्रभु की इच्छा, वो दिन था और उनकी मृत्यु का दिन, गुरु गोलवलकर ने अपने बाल कभी नहीं कटवाए.
फरवरी में मकर संक्रांति उत्सव के 1 महीने बाद बाबा के गुरु रामकृष्ण परमहंस के जन्म शताब्दी वर्ष के अंतिम दिन की तैयारियों की चर्चा के बीच बाबा ने सबको साधु होने का अर्थ बताया, “नाहम नाहम … तू ही तू ही”. यानी ‘मैं नहीं मैं नहीं तू ही तू ही’. यानी साधु बनो तो अहम त्याग दो, दूसरों की चिंता करो, अपनी नहीं. माधव ने इसे अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया. इस घटना के 17 साल बाद जब धर्मयुग पत्रिका के सम्पादक सत्यकाम विद्यालंकार ने उनके साथ सभी राष्ट्रीय हस्तियों से पूछा कि एक वाक्य बताइए जो उनके जीवन को निर्देशित करता है, तो गुरु गोलवलकर ने लिखकर भेजा था, “मैं नहीं केवल तुम”. 27 सितम्बर 1954 को उन्होंने इसे अपने हाथ से लिखकर उन्हें भेजा था.
एक दिन बीमारी की हालत में बाबा ने उन्हें बुलाकर कहा था कि, “तुम जिंदगी में सर्वश्रेष्ठ करो.. मेरे अंदर जो भी अच्छा है, मेरी गुरु महाराज से प्रार्थना है कि तुम्हें मिल जाए और तुम्हारे अंदर जो अवगुण हैं, वो मेरे अंदर आ जाएं.” इस संदेश का बड़े मायने थे, शायद वो गुरु गोलवलकर को लेकर भविष्य का कुछ भान कर रहे थे. कुछ दिन बाद ही उनकी तबियत ज्यादा खराब हो गई. तय किया गया कि उनको बैलूर मठ ले जाया जाए. 6 फरवरी की शाम 5 बजे बाबा को फर्स्ट क्लास में सीट मिली, उनके साथ माधव को ऱखा गया. विभूति को एक दिन पहले कलकत्ता भेज दिया गया था और रघुवीर और अमिताभ दूसरे कूपे में थे.
रात को 11 बजे सियालदह स्टेशन पर उन्हें उतारा गया, आगे का रास्ता एम्बुलेंस से तय किया गया. 7 फरवरी को डॉक्टर्स ने उन्हें ऑक्सीजन देने की कोशिश की, सफल नहीं हए. दोपहर 3 बजे के बाद उनकी मृत्यु हो गई. गोलवलकर वहां शताब्दी वर्ष के पूरा होने तक रुके. बैलूर मठ से उसके बाद वो सारागाछी आश्रम पहुंचे. अपने सामान के साथ उन्होंने कुछ ऐसी वस्तुएं भी साथ लीं, जो आपके लिए चौकाने वाली हो सकती हैं, जैसे बाबा का चित्र, जिस पर उनके हस्ताक्षर भी थे, बाबा का एक वस्त्र, दो भगवा रूमाल आदि. दो और अमूल्य चीजें थीं, बाबा की कुछ अस्थियां और रामकृष्ण परमहंस के 20-25 केश. ये सब आज भी पुणे शहर में वासुदेव गोलवलकर के पूजा कक्ष में सुरक्षित रखे हैं.
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