महीनों तक शाखाएं नहीं लगीं, कोई वर्ग नहीं लगा, बैठकें भी हुईं तो गुप्त रूप से और वो भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे प्रतिबंध या गुरु गोलवलकर को जेल से छुड़ाने के लिए रणनीति बनाने पर केन्द्रित रहीं. सत्याग्रह की योजना बनाई जाती रही. बाहर आने के बाद गुरु गोलवलकर को संघ का रुका हुआ काम फिर से शुरू करना था. सबको एक बार फिर से उत्साह से भरना था. पूरे देश के स्वयंसेवक उनसे मिलने को उतावले थे, सो गुरु गोलवलकर ने इसके लिए पूरे भारत की यात्रा की योजना बनाई. माना जाता है कि गुरु गोलवलकर अपने जीवन में पूरे देश की 66 बार यात्राएं कर चुके थे. लेकिन ये शायद पहली यात्रा थी, जब उन्हें मराठी इलाकों में ही मारने की साजिश रची जा रही थी. और पढ़ें
संगठन में उनके ना रहने से जो कार्य शिथिल पड़ गए थे, या विलंबित थे, उन सबको फौरी तौर पर करने के बाद गुरु गोलवलकर ने 20 अगस्त 1949 में दिल्ली से अपनी यात्रा की शुरूआत की योजना बनाई, लेकिन सरदार पटेल बीमार थे, सो वो उनसे मिलने बम्बई (अब मुंबई) चले गए. 1 घंटे की बातचीत में सीपी भिषिकर लिखित गुरु गोलवलकर की आत्मकथा के अनुसार, सरदार पटेल ने उनसे ईसाई मिशनरियों की बढ़ती हुई गतिविधियों की चर्चा की. पटेल ने उनसे नए-नए बने देश पाकिस्तान को लेकर भी चिंता जताई कि इसके बनने से अब ढेर सारी परेशानियां पैदा होंगी.
दिल्ली में प्रतिबंध हटने के बाद जुटे 5 लाख लोग
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गुरु गोलवलकर फिर से दिल्ली में थे. उनके स्वागत को देखकर लग रहा था प्रतिबंध के बाद RSS और मजबूत होकर उभरा है, क्योंकि जनता के बीच ये संदेश गया है कि उनको गांधीजी की हत्या में जानबूझकर फंसाया गया था, बेवजह प्रतिबंध लगाया गया और इतने दिन जेल में रखा गया. हजारों लोग सड़कों पर थे और बस उनकी एक झलक पाना चाहते थे. दावा किया जाता है कि रामलीला मैदान में उनकी सभा में पांच लाख लोग थे. उनकी सभा में भीड़ को देखकर बीबीसी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, “Shri Guruji is a shining star that has arisen on the Indian firmament. The only other Indian who can draw such huge crowds is Pt. Nehru.” हर शहर में उनका ऐसे ही स्वागत हो रहा था. हर जगह लोगों को लगता था कि उनके मन के आक्रोश को गुरु गोलवलकर का सरकार के खिलाफ कोई ऐलान ही ठंडा कर सकता है. उनको उम्मीद थी कि वो कुछ तो ऐसा कहेंगे कि सरकार की नींद उड़ जाएगी, लेकिन जेल में फिर से अपने आध्यात्म जीवन की ओर लौट जाने वाले गुरु गोलवलकर शांत मन से उनकी भावनाओं को समझते हुए, कुछ ऐसे समझाते थे कि, “कभी हमारी जीभ अपने ही दांतों के नीचे आ जाती है, काफी दर्द होता है, तो क्या हम दांतों से उसका बदला लेते हैं? लेंगे तब भी दर्द हमें ही होगा. जिन लोगों ने हमारे साथ गलत किया, वो भी तो हमारे लोग हैं. उन्हें माफ कर दीजिए और फिर से उसी राष्ट्र निर्माण के कार्य में जुट जाइए, जो अधूरा छूट गया था”.
प्रतिबंध हटने के बाद अगस्त से लेकर नवम्बर 1949 तक पंडित नेहरू से गुरु गोलवलकर 3 बार मिले. सबसे पहले 23 अगस्त की सभा के एक हफ्ते बाद ही यानी 30 अगस्त को. तीनों बैठकों में हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, धार्मिक सहिष्णुता, गैर हिंदुओं का मुख्य धारा में आना, संघ के कार्य और संगठन, अहिंसा की नीति जैसे कई मुद्दों पर व्यापक चर्चा हुई. लेकिन खुद गुरु गोलवलकर को लगता था कि पंडित नेहरू ने एक खास सोच संघ को लेकर बना रखी थी, वो अपने मन में उसे बदलने को तैयार नहीं दिखते थे. उन्हें नहीं लगता था कि संघ के बारे में नेहरू कभी अच्छा सोच पाएंगे.
हालांकि एस.आर. गोयल की किताब History in the Making: Nehru and the Nehru Era में नेहरूजी का सरदार पटेल के नाम एक पत्र का उल्लेख है, तब नेहरू इंग्लैंड यात्रा पर थे. इसमें उन्होंने लिखा था कि यहां भारत में ब्रिटिश सांसद कम्युनिस्टों पर भारत में कार्रवाई को लेकर सवाल उठा रहे हैं. खुद लेडी एडविना भी चिंतित थीं. संघ के लोग तो जेल से छोड़े जा रहे हैं और कम्युनिस्टों को जेल भेजा जा रहा है. नेहरू का समाजवाद, मार्क्सवाद के साथ झुकाव सबको पता था, उसमें बहुत कम लोगों को पता है कि एडविना खुद कम्युनिस्ट थीं.
गुरु गोलवलकर की एक झलक पाने को उमड़ पड़े थे हजारों लोग (Photo: AI generated)इधर आज के महाराष्ट्र के कई इलाकों में संघ को पसंद ना करने वालों के इरादे कुछ नेक नजर नहीं आ रहे थे. उनको लगता था कि संघ पर प्रतिबंध लग गया है तो अब संघ खत्म ही हो जाएगा, लेकिन प्रतिबंध हटने के बाद जिस तरह से संघ औऱ मजबूत होकर उभरा है, गुरु गोलवलकर की जैसी वाहवाही हुई है, सरदार पटेल और पंडित नेहरू खुद उन्हें मिलने बुला रहे है, उससे संघ के खत्म होने के सारे आसार खत्म हो गए हैं और जब तक गुरु गोलवलकर जीवित हैं, संघ बढ़ता ही रहेगा.
खेतों के बीच सड़क पर मारने की साजिश थी
इसी वजह से उन सबके मन में था कि अगर गुरु गोलवलकर अपनी यात्रा के दौरान यहां आएं तो उनको निपटा दिया जाएगा, अगर ऐसा नहीं हुआ तो पत्थर बरसाने से, मारपीट करने से उन्हें उनके ही इलाके में कौन रोक सकता है भला? मिराज, सांगली, कोल्हापुर जैसे तमाम इलाकों में कुछ गुट हमले की योजना बनाने में जुट गए थे. जब वह कोल्हापुर पहुंचे तो तमाम प्रदर्शन हुए, उनका पुतला बनाकर उसका दहन कर दिया गया. कई जगह भीड़ इकट्ठा हो गई, लेकिन गुरु गोलवलकर शांति के साथ अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहे. यहां तक कि महालक्ष्मी के मंदिर भी दर्शन करने गए. पुलिस मुस्तैद रही और उनसे ज्यादा ऐसे स्वयंसेवक, जिनको पता था गुरुजी सुरक्षा के लिए उसी तरह मना करेंगे, जैसे गांधी हत्या के दूसरे दिन किया था. लेकिन ना तब उन्होंने गुरुजी की बात मानी थी ना इस बार मानने वाले थे. उसके बाद अपने वाहन में कोल्हापुर के अधिकारी उन्हें अपने शहर की सीमा तक छोड़ आए. आगे उन्हें सांगली जाना था. इतने इंतजाम के बावजूद भीड़ ने उस वाहन तक पर पत्थरों की बरसात कर दी. कोल्हापुर से उन्हें सांगली ले जाने के लिए मशहूर फिल्म निर्देशक (दादा साहेब फाल्के पुरस्कार विजेता) भालजी पेंढेरकर की कार खड़ी थी. भालजी ने 1925 में पहली ही फिल्म बनाई थी, ‘बाजीराव मस्तानी’. गुरु गोलवलकर हमेशा की तरह ड्राइवर के साथ कार में आगे बैठे और पिछली सीट पर बैठे वहां के प्रांत प्रचारक बाबाराव भिड़े.
एक जगह जहां कोल्हापुर-सांगली रोड से मिराज मिलता है, वहां साइकिलों पर कुछ स्वयंसेवक इंतजार कर रहे थे. उन्होंने बताया कि सांगली से थोड़ा पहले खेतों में एक बड़ी भीड़ छुपकर इंतजार कर रही है, आपकी कार को रोकेंगे और फिर हमला कर देंगे. उन स्वयंसेवकों ने सुझाव दिया कि गुरुजी को पिछली सीट पर बैठना चाहिए और उनकी कार के पीछे एक बस भरके स्वयंसेवक होने चाहिए. लेकिन गुरु गोलवलकर ने इसको खारिज कर दिया, कहा, “नहीं, कार नहीं रुकेगी, चिंता मत करो, कुछ नहीं होगा”,
गुरुजी की आज्ञा थी, सो कार को तो ले जाना ही था. बाबाराव ड्राइवर को समझा चुके थे कि कार को किसी भी हालत में रोकना नहीं है. जैसे ही कार सांगली के पास पहुंची अचानक से सुनसान दिख रहे दोनों तरफ के खेतों से निकलकर लोग सड़क पर जमा होने लगे. वो सड़क पर इस तरह बीचोबीच खड़े थे कि उनको रौंदे बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती थी, कार को रोकते तो वो गुरुजी पर हमला कर देते. बाबाराव ने ना कुछ सोचा, ना गुरुजी से पूछा, सीधे ड्राइवर को आदेश दिया कि, कार की स्पीड और बढ़ा दो, बिलकुल रुकना मत, चाहे जो हो जाए. जो भीड़ ये सोच रही थी कि आराम से कार को रोक लेंगे, कार की स्पीड को बढ़ते देख उन्हें अब वाकई में चिंता होने लगी. ड्राइवर को भी शायद ये लग गया था कि रुके तो इनके साथ उसकी भी जान जाएगी. ये सब इतनी तेजी से हुआ और कार का माहौल तनावपूर्ण था लेकिन बिना बोले गुरु गोलवलकर शांत बैठे रहे. यूं भी भीड़ के इरादे कतई नेक नजर नहीं आ रहे थे.
जैसे ही कार भीड़ के एकदम करीब पहुंची, सारे भाग छूटे और कार तेजी से उनके बीच से निकल गई. उसके बाद जब वो सांगली पहुंचे, तब तक खबर वहां पहुंच चुकी थी, हर कोई उन्हें सुरक्षित देखकर खुश हुआ. सांगली में भी लोग बाज नहीं आए, और दो तीन स्थानों पर उनके ऊपर पत्थरबाजी की घटनाएं हुईं, लेकिन कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ. गुरु गोलवलकर ने किसी से इस घटना की खुद चर्चा नहीं की, ना मंच से कुछ बोला और ना मीडिया से.
बाद में ‘पुरुषार्थ’ पत्रिका में उन्होंने इस घटना के बारे में लिखा, साथ में ये भी लिखा कि, “ये हमारे अपने लोग हैं, जिनकी कि हमको सेवा करनी है. वो हमें फूलों का हार भी दे सकते हैं और जूतों का हार भी. वो हमारी तारीफ भी कर सकते हैं और गालियां भी दे सकते हैं. समाज हमारे साथ बहुत अच्छे तरीके से या कठोरता से व्यवहार कर सकता है, यही तो हमारी पऱीक्षा है. एक दिन वो हमारे साथ होंगे. हमारी सम्पूर्ण निष्ठा देखकर वो हमारे समर्थक बनना भी स्वीकार करेंगे. समाज सर्वशक्तिमान ईश्वर का अवतार है, और ईश्वर ने कहा है कि वह अपने उपासकों का दास है. इसलिए ज़रूरत है कि हम खुद को सच्चा उपासक साबित करें”.
पिछली कहानीः संघ के 100 साल: जब जिन्ना के हत्यारे दोस्त के बदले पाकिस्तान से छुड़ाए गए 20 स्वयंसेवक
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