तब पाकिस्तानी जनरल राहिल शरीफ बने थे पहले कमांडर (Photo: ंX/CMShehbaz)



पाकिस्तान अपनी सुरक्षा के लिए अब दूसरे मुल्कों के सामने हाथ फैला रहा है. इसी कड़ी में बुधवार को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने सऊदी अरब के साथ एक डिफेंस डील की है. इस डील को ‘स्ट्रैटेजिक म्यूचुअल डिफेंस एग्रीमेंट’ नाम दिया गया है. इसके तहत किसी भी एक देश पर हमला, दोनों देशों पर हमला माना जाएगा. समझौते में कहा गया है कि दोनों देश इसके जरिए रक्षा सहयोग को मजबूत करेंगे, संयुक्त प्रतिरोधक क्षमता विकसित करेंगे और किसी भी संभावित हमले से बचाव के साझा उपाय खोजने में एक-दूसरे की मदद लेंगे. हालांकि पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच यह सैन्य समझौता कोई नई बात नहीं है, बल्कि एक दशक पहले भी ऐसे प्रयास हो चुके हैं.

दस साल पहले बना इस्लामी गठबंधन

साल 2015 में सऊदी अरब की महत्वाकांक्षा और पाकिस्तान के समर्थन के साथ एक इस्लामी सैन्य गठबंधन बनाया गया था. इस गठबंधन का नेतृत्व पाकिस्तानी जनरल राहिल शरीफ ने किया था. गठबंधन में 34 मुस्लिम देश शामिल थे, जिनकी संख्या बाद में बढ़कर 42 हो गई थी. इसका मकसद आतंकवाद से लड़ना था, लेकिन यह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाया. अब एक बार फिर दोनों के बीच एक सैन्य समझौता हुआ है. लेकिन इस बार इसे ‘इस्लामी सैन्य गठबंधन’ का नाम नहीं दिया गया है.

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पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री और शहबाज शरीफ के भाई नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली सरकार ने तब सऊदी अरब की तरफ से प्रस्तावित इस्लामी सैन्य गठबंधन का समर्थन किया था. इस गठबंधन को Islamic Military Counter Terrorism Coalition यानी IMCTC कहा जाता है. यह गठबंधन 34 देशों के साथ बनाया गया था, लेकिन बाद में सदस्य देशों की संख्या बढ़कर 42  हो गई.

सऊदा की पहल, PAK का समर्थन

दिसंबर 2015 में सऊदी अरब के तत्कालीन रक्षा मंत्री मोहम्मद बिन सलमान ने इस गठबंधन का ऐलान किया था. इसका मुख्य उद्देश्य ISIS जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ लड़ना था. यह घोषणा तब हुई जब वैश्विक स्तर पर ISIS का खतरा चरम पर था और सऊदी अरब मिडिल ईस्ट में अपनी भूमिका को मजबूत करना चाहता था.

नवाज शरीफ की सरकार ने तब इस गठबंधन का समर्थन किया. पाकिस्तान इसका प्रमुख सदस्य बना और नवाज शरीफ ने सऊदी अरब के साथ मजबूत रिश्तों की वजह से इस गठबंधन को बढ़ावा दिया. हालांकि, पाकिस्तान ने साफ किया कि यह गठबंधन यमन युद्ध में शामिल होने के लिए नहीं है, बल्कि आतंकवाद विरोधी प्रयासों के लिए बना है. नवाज शरीफ ने संसद में प्रस्ताव पारित करवाया कि पाकिस्तान इस गठबंधन में तटस्थ भूमिका अदा करेगा. 

पाकिस्तानी जनरल राहिल शरीफ बने थे पहले कमांडरराहिल शरीफ बने थे पहले कमांडर

सऊदी अरब ने गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ को कमांडर बनने का न्योता दिया, जिसका ऑपरेशनल सेंटर राजधानी रियाद में था. राहिल शरीफ ने नवंबर 2016 में पाकिस्तानी सेना से रिटायरमेंट के बाद जनवरी 2017 में रियाद जाकर कार्यभार भी संभाला. पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें विशेष विमान से परिवार के साथ रियाद में गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए भेजा था. लेकिन पाकिस्तान में घरेलू स्तर पर राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया, क्योंकि इससे पाकिस्तान-ईरान संबंध बिगड़ने का खतरा था.

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गठबंधन का मकसद आतंकवाद, उग्रवाद और हिंसक विचारधाराओं के खिलाफ संयुक्त सैन्य कार्रवाई करना था. इसमें जॉइंट कमांड सेंटर स्थापित करना, खुफिया जानकारी साझा करना और मिलिट्री एक्सरसाइज शामिल थी. सऊदी ने दावा किया कि यह इस्लामी दुनिया का स्टैंड है. इसके जरिए इस्लाम के सिद्धांतों का प्रसार करने की कोशिश भी की गई है. टेरर फंडिंग पर नकेल कसना और उसके खिलाफ प्रभावी कदम उठाना भी गठबंधन का मकसद था. सदस्य देशों को सैन्य सहायता पहुंचाना भी इसका लक्ष्य था, ताकि वे सशस्त्र आतंकवादी समूहों को मुकाबला कर सकें.

क्यों फेल हुआ यह गठबंधन?

हालांकि अपने गठन के कुछ ही वर्षों बाद यह गठबंधन निष्क्रिय होता गया. इसके फेल होने के कई कारण थे. पहला तो ये कि ईरान, इराक, और सीरिया जैसे कई बड़े मुस्लिम देश इसमें शामिल नहीं थे. इससे गठबंधन की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए गए. दूसरा, इसके मकसद साफ नहीं थे, कुछ देशों ने इसे शिया-सुन्नी संघर्ष के तौर पर देखा, क्योंकि इसमें ज्यादातर सुन्नी बहुल देश शामिल थे. तीसरा, सदस्य देशों के बीच आपसी समन्वय और भरोसे की भारी कमी थी. कई देशों ने सिर्फ नाम के लिए इसमें अपनी भागीदारी दी, जबकि उनकी कोई सक्रीय भूमिका नहीं रही. 

पाकिस्तान इस्लामी सैन्य गठबंधन में एक्टिव रोल निभाकर फंस गया. क्योंकि पाकिस्तान के ईरान के साथ अच्छे संबंध थे और इस गठबंधन में ईरान शामिल नहीं था और इसे तेहरान का प्रतिद्वंदी माना गया. पाकिस्तान के कई राजनेताओं और विश्लेषकों ने चेतावनी दी थी कि यह गठबंधन पाकिस्तान को मिडिल ईस्ट के आंतरिक संघर्षों में खींच सकता है. पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर घोषणा की थी कि यह गठबंधन किसी भी देश के खिलाफ नहीं है, लेकिन इसकी भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे. यह गठबंधन पाकिस्तान की तथस्थ विदेश नीति की खिलाफ गया और घरेलू स्तर पर सरकार की काफी आलोचना हुई.

कोई मिलिट्री ऑपरेशन नहीं, सिर्फ खानापूर्ति

इस गठबंधन के तहत आतंकवाद के खिलाफ कोई बड़ा ऑपरेशन नहीं हुआ. ISIS तो दूर, किसी अन्य छोटे आतंकी गुट के खिलाफ तक कोई कदम नहीं उठाए गए. सऊदी-ईरान प्रतिद्वंद्विता, यमन युद्ध और क्षेत्रीय अस्थिरता ने इस गठबंधन को कमजोर किया. पाकिस्तान जैसे देशों को अपनी भूमिका को लेकर संतुलन बनाना पड़ा और 2017 के बाद गतिविधियां ठप पड़े गईं.

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हालांकि 2016 में सैन्य गठबंधन के तहत एक सैन्य अभ्यास जरूर हुआ था, लेकिन उसे भी सऊदी के ईरान विरोधी रुख से जोड़कर देखा गया. ऐसे में जब आज पाकिस्तान और सऊदी अरब मिलकर सैन्य समझौते पर सहमत हुए हैं, तब उन्हें 10 साल पुराने इस गठबंधन के हश्र से सबक जरूर लेना चाहिए. 
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