1967 में हिंदी के जाने-माने दैनिक हिंदुस्तान में भारत छोड़ो आंदोलन की ‘हीरोइन’ के इंटरव्यू का जिक्र रतन शारदा की किताब ‘RSS 360 Degree..’ समेत कई किताबों में मिलता है. जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे अंग्रेजों से बचाने के लिए उन्हें दिल्ली में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक लाला हंसराज जी ने करीब 15 दिन तक अपने घर में रखा था और इतनी गोपनीयता बरती कि किसी को कानोकान खबर ना होने पाए.
बाद में कई ठिकाने तलाशने में उन्होंने मदद की. आज की पीढ़ी अरुणा आसफ अली को कम ही जानती होगी, जिन्हें भारत छोड़ो आंदोलन की ‘हीरोइन’ तक कहा जाता है. ऐसा ये इकलौता वाकया नहीं है कि जो ये बताता है कि संघ ने 1942 के आंदोलन से एकदम हाथ नहीं खींच लिए थे. गुरु गोलवलकर के सामने ये थीं चुनौतियां
माधव सदाशिव गोलवलकर ने जब डॉ केशव बलिराम हेडगेवार के बाद संघ का कामकाज संभाला तो कई लोग उनके चयन से खुश नहीं थे. गोलवलकर को उनका भी भरोसा जीतना था, खुद को साबित भी करना था और संघ के कार्य को भी पूरे देश में ले जाना था. यूं डॉ हेडगेवार अपने समय में ही सिंध, पंजाब, बंगाल, बिहार, यूपी, मध्य प्रांत (एमपी, महाराष्ट्र), गुजरात, आंध्र आदि प्रदेशों में काम शुरू कर चुके थे. लेकिन अभी पैर उतनी मजबूती से नहीं जमे थे. उस पर जिस साल वो सरसंघचालक बने थे, यानी 1940 में, उसी साल मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित कर दिया था और दूसरा विश्व युद्ध भी पहले ही शुरू हो गया था. गुरु गोलवलकर जियो पॉलिटिक्स पर बारीक नजर रखते थे. दूसरे उनका भरोसा कांग्रेस से भी हटता जा रहा था, उन्हें लग रहा था कि अखंड भारत दो टुकड़ों में टूट जाएगा.
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ऐसे में संघ की मजूबती के लिए उन्होंने प्रचारक व्यवस्था को मजबूत करने का फैसला किया. अभी तक प्रचारकों का ज्यादातर काम दूसरे शहर में जाकर पढ़ाई करते हुए विद्यार्थी ही देखते थे. गोलवलकर को लगा कि पूर्णकालिक प्रचारकों की फौज तैयार करनी होगी, जो देश और समाज के लिए परिवार को भूलकर ध्येय के लिए अपना समय दे सकें. उन्होंने आह्वान किया कि पढ़ने वाले, नौकरी करने वाले, किसी भी व्यवसाय से जुड़े लोगों को संघ के लिए समय देना ही होगा. कम से कम एक साल अपने परिवार या किसी और काम को भूलना होगा. कई सौ नौजवान उनके इस आह्वान पर अपनी नौकरी या शादी जैसे जरूरी काम टालकर संघ से जुड़े और बतौर प्रचारक देश भर के अलग अलग हिस्सों में भेजे गए. कुल 48 प्रचारक तो उस वक्त लाहौर से ही निकले थे. इनमें से 10 एमए पास थे और 2 डॉक्टर और 14 शास्त्री. अमृतसर ने लाहौर का भी रिकॉर्ड तोड़ दिया, पूरे 52 प्रचारक देकर.
इधर संघ की प्रार्थना पहले ही संस्कृत में हो चुकी थी. आर्मी जैसी गतिविधियों पर रोक के ब्रिटिश सर्कुलर के बाद संघ के गणवेश से खाकी शर्ट की जगह सफेद शर्ट आ गई थी. सरसेनापति पद खत्म कर दिया गया था, परेड के दौरान कमांड भी अंग्रेजी से हिंदी या मराठी में कर दी गई थीं.
गुरुजी संघ को पूऱी तरह भारतीय तेवरों में रखना चाहते थे, सो कई स्तर पर काम शुरू हो गया था. इसी दौरान घटनाएं तेजी से घट रही थीं, नेताजी बोस भारत छोड़कर निकल गए और रासबिहारी बोस ने उन्हें आजाद हिंद फौज की कमान सौंप दी थी, उनकी फौज धीरे धीरे भारत की तरफ बढ़ रही थी.
संघचालक की पत्नी ने दिया अरुणा आसफ अली को घाघरा चोली
नेताजी बोस के निकलते ही गांधीजी ने अगस्त में भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान कर दिया था, उन्हें लगा था बाकी आंदोलनों की तरह उन्हें इस आंदोलन की रूप रेखा बनाने, तैयारी करने के लिए कम से कम 6 महीने तो मिलेंगे, लेकिन शायद अंदाजा नहीं था कि विश्व युद्ध के चलते वो उसी रात गिरफ्तार कर लिए जाएंगे. उनके साथ बाकी नेता भी. जिनमें अरुणा गांगुली के पति आसफ अली भी थे. अगले दिन मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान पर 33 साल की अरुणा ने तिरंगा फहरा दिया. पुलिस ने उन पर 5 हजार रुपये का इनाम घोषित कर दिया. इनाम के लालच में कोई भी उन्हें गिरफ्तार करवा सकता था. कांग्रेस के नेताओं की धरपकड़ पहले दिन से ही शुरू हो गई थी, हर शहर के छोटे बड़े नेता अंदर थे या फरार थे, ऐसे में अरुणा को सहारा मिला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज से. उन्होंने उनको कई दिन तक अपने घर में छुपाकर रखा. अंग्रेजों की नाराजगी का खतरा मोल लेते हुए उनकी काफी मदद की. उन्हें बाद में भी सुरक्षित ठिकानों पर भेजा.
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उनके वहां से निकलने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है, चूंकि अंडरग्राउंड रहते हुए एक ही जगह छुपे रहना अक्लमंदी का काम नहीं था. तो उन्होंने दूसरे ठिकाने पर जाने की योजना बनाई. अरुणा ने इसी इंटरव्यू में बताया कि, “बाजार में से एक बारात निकल रही थी, लालाजी की पत्नी ने मुझे एक घाघरा चोली लाकर दिया, उसे पहनकर मैं बारात के संग भांगड़ा करते हुए निकल गई. एक दिन जब मैं उन्हें वापस करने गई तो उन्होंने उसे लेने से भी मना कर दिया और कहा कि तुम रख लो, हमारी तरफ से उपहार है”. क्यों संघ ने बनाई भारत छोड़ो आंदोलन से दूरी
इधर लगातार गुरु गोलवलकर पर इस बात का दवाब पड़ रहा था कि आंदोलन में भाग लिया जाए, उसी तरह जैसे सविनय अवज्ञा आंदोलन और डांडी मार्च के दौरान डॉ हेडगेवार पर पड़ा. तब डॉ हेडगेवार ने संघ के काम को नहीं रोका, शाखाएं भी चलने दीं और खुद सरसरसंघचालक के पद से इस्तीफा देकर, डॉ परांजपे को ये पद देकर तब सत्याग्रह करने गए. लेकिन तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका था. नेताजी बोस ने जब डॉ हेडगेवार से मिलने की इच्छा पुणे में जताई थी, स्थानीय नेताओं ने उन्हें रोक दिया था. निजाम के खिलाफ हिंदुओं के आंदोलन में कांग्रेस ने साथ नहीं दिया था और मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के प्रस्ताव पर कांग्रेस की ढुलमुल नीति उसकी स्थिति को संदिग्ध बना रही थी.
संघ ने पाकिस्तान प्रस्ताव पर कांग्रेस की ढुलमुल नीति को देखते हुए भारत छोड़ो आंदोलन से दूरी बना ली. (Photo: AI generated)बावजूद इन सबके गुरु गोलवलकर ने पुरानी नीति अपनाई, संघ के कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत तौर पर भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने की अनुमति दी, लेकिन संघ को इससे दूर रखा. भारतीय मजदूर संघ जैसे बड़े संगठन के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी का बयान सीपी भिषिकर ने अपनी किताब ‘श्री गुरुजी’ में छापा है. दत्तोपंत ठेंगड़ी लिखते हैं, “सितम्बर 1942 में गुरुजी मंगलौर के वर्ग को खत्म करके मद्रास जाने की तैयारी कर रहे थे, तब कई स्वयंसेवकों, यहां तक कि कई प्रचारकों के मन में भी 1942 के आंदोलन को लेकर ऊहापोह चल रही थी कि संघ इतने नाजुक समय में भी कुछ नहीं कर रहा था तो फिर इतनी ताकत खड़ी करने का क्या उपयोग है? तब मैं कालीकट का प्रचारक था, कालीकट मंगलौर के पास था, तो मुझे भी वहां आने को कहा गया. मैंने गुरुजी से मुलाकात की और सभी के मन में उठ रहे इस सवाल को रखा”.
गुरुजी ने उन्हें ये बताते हुए कि पहले की तरह संघ आंदोलन में ना शामिल होते हुए कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत तौर पर भाग लेने की अनुमति देगा और ये भी कहा कि ये अच्छा होता कि कांग्रेस इस आंदोलन को शुरू करने से पहले संघ के साथ-साथ बाकी संगठनों को भी विश्वास में लेती. लेकिन हम इसे वजह नहीं बता सकते क्योंकि आजादी केवल कांग्रेस वालों के लिए नहीं बल्कि सबके लिए हैं. लेकिन कांग्रेस की इस आंदोलन के लिए कोई योजना ही नहीं थी कि उनके जेल जाने के बाद आंदोलन कैसे चलेगा. अब कोई भी अपने हिसाब से इस आंदोलन में हिस्सा ले रहा है, स्थिति उनके नेताओं के नियंत्रण से भी बाहर है. आंदोलन में कोई और संगठन कैसे जुड़े, इस पर बात करने के लिए कोई कांग्रेस नेता उपलब्ध भी नहीं है, सब जेल में हैं. ऐसे में आंदोलन दिशाहीन है. काफी विचार विमर्श खासतौर पर रणनीति के मुद्दे पर सोचने के बाद संघ ने ये तय किया है कि हम संगठन को इससे बाहर रखेंगे, बाकी संघ के कार्यकर्ता अपने अपने स्तर पर इस आंदोलन में सहयोग दे ही रहे हैं. गुरु गोलवलकर ने स्पष्ट ढंग से दत्तोपंत को समझा दिया था.
संघ के स्वयंसेवक बने कांग्रेस नेताओं के शरणदाता
संगठन के तौर पर संघ के ना शामिल होने के बावजूद आप ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में संघ स्वयंसेवकों की दमदार उपस्थिति को नकार नहीं सकते. विदर्भ के चिमूर में रमाकांत देशपांडे के नेतृत्व में चलने वाला आंदोलन हिंसक हो गया, कई स्वयंसेवक और पुलिसवाले भी मारे गए. इतिहास में उसे ‘चिमूर अष्टी विद्रोह’ के नाम से जाना जाता है, इसमें यूरोपीय सैनिकों द्वारा कई महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं ने लोगों के गुस्से को चरम पर पहुंचा दिया, बाद में 8 को फांसी की सजा हुई, लम्बे समय तक मुकदमे चलते रहे.
अरुणा आसफ अली भारत छोड़ो आंदोलन की अकेली नेता नहीं थी, जिन्होंने किसी संघ अधिकारी या स्वयंसेवक के यहां शरण लीं. औंध (पुणे) के संघचालक पंडित श्रीपद दामोदर सत्वालेकर ने भी कांग्रेस नेता नाना पाटिल को शरण दी थी. औंध नामक गांव में कभी मशहूर ‘खड़की की लड़ाई’ हुई थी. ये आजकल पुणे का हिस्सा है. सतारा के संघचालक ने भी नाना पाटिल के सहयोगी किशनवीर को अंग्रेजों से छुपाकर अपने घर में कई दिन तक रखा था. समाजवादी नेता अच्युत पटवर्धन भी इस दौरान एक नहीं बल्कि कई स्वयंसेवकों के घरों में शरण लेकर ही गिरफ्तारी से बच पाए थे. उनको मुख्य रूप से शरण देने वाले थे पुणे के संघचालक भाऊसाहेब देशमुख. भाऊसाहब ने केवल उन्हें ही नहीं संघ के प्रखर विरोधी गांधीवादी नेता साने गुरुजी को भी शऱण दी थी. संघ पर प्रतिबंध के विरोध में कांग्रेस नेता का इस्तीफा
संघ ने 1942 में कांग्रेस नेताओं की अंग्रेजों से बचने में जो मदद की थी, उसका असर भी बड़ा दिलचस्प था, जब 1948 में गांधी हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा तो महाराष्ट्र में सोलापुर के कांगेस नेता गणेश बापूजी शिंकर ने नाराज होकर पहले कांगेस से इस्तीफा दिया, फिर संघ पर प्रतिबंध हटाने की मांग लेकर सत्याग्रह पर बैठ गए. उनका कहना था हमारे अंडरग्राउंड रहने के दौरान संघ के स्वयंसेवकों ने ना केवल हमें शरण दी, बल्कि हमारे परिवारों का भी ख्याल रखा, कई तरीके से हमारी मदद की. ऐसे संगठन पर प्रतिबंध लगाना एकदम गलत है.
पिछली कहानी: कांग्रेस के अधिवेशन और RSS के शिविर का कैसा रहा था गांधीजी का पहला अनुभव
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