सूर्य की सात किरणों में से श्रद्धा नाम की किरण ही श्राद्ध-तर्पण को पितरों तक पहुंचाती है



सर्वपितृ श्राद्ध के साथ पितृ पक्ष की समाप्ति हो रही है. इसी के साथ पितर विदा हो जाते हैं और धरती से जाकर पितर लोक में स्थापित होकर निवास करते हैं. पितरों का अपने लोक से धरती पर ये आवाजाही इतनी सरल नहीं है. इस प्रक्रिया में साधन बनते हैं सूर्यदेव और उनकी पहली सात किरणें. श्राद्ध की समाप्ति का यह पर्व सर्वपितृ श्राद्ध कहलाता है. अतीत और वर्तमान के अचूक मेल वाला यह सनातनी पर्व भारतीय परंपरा की विशेषता है. श्राद्ध के कर्म में ज्योतिष, आयुर्वेद और योग की प्रक्रिया भी शामिल है. पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से पितृ दोष और नाड़ी दोष का निदान होता है. 

आर्यमा हैं पितरों के देवतापितरों के जो देवता हैं वह अर्यमा या आर्यमा कहलाते हैं. सूर्य की श्रद्धा नाम की एक किरण होती है. यह किरण मध्याह्न काल में धरती पर प्रवेश करती है और पितृ का भाग लेकर चली जाती है. अब इसका नाड़ी विज्ञान से संबंध समझिए. आयुर्वेद में मनुष्यों की एक सुषुम्ना नाड़ी का वर्णन आता है. इसका संबंध सूर्य से माना गया है. इसी के द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध किया जाता है. इसी नाड़ी के द्वारा सूर्य की श्रद्धा किरण पृथ्वी पर प्रवेश करती है और यहां से पितृ के भाग को लेकर चली जाती है. 

गीता में इसे लेकर श्रीकृष्ण कहते हैं-

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अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् .पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥29॥

इस श्लोक का अर्थ है कि हे धनंजय! संसार के विभिन्न नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं, पितरों में अर्यमा तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं. इस प्रकार अर्यमा को भगवान श्री कृष्ण द्वारा महिमामंडित किया गया है.

ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः.ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय.

इस श्लोक का अर्थ है कि सभी पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ हैं. अर्यमा ही सभी पितरों के देव माने जाते हैं. इसलिए अर्यमा को प्रणाम. हे पिता, पितामह, और प्रपितामह. हे माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम. आप हमें मृत्यु से मोक्ष की ओर ले चलें और मुक्ति का ही मार्ग है, यही अमरता है. इसलिए वैशाख मास के दौरान सूर्य देव को अर्यमा भी कहा जाता है.

सर्वास्ता अव रुन्धे स्वर्ग: षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात्.

अथर्ववेद में अश्विन मास के दौरान पितृपक्ष के बारे में कहा गया है कि शरद ऋतु के दौरान जब छोटी संक्रांति आती है अर्थात सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तो इच्छित वस्तुओं में पितरों को प्रदान की जाती हैं, यह सभी वस्तुएं स्वर्ग देने वाली होती हैं. 

आदित्यों में एक हैं आर्यमाआश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक की अवधि के दौरान पितृ प्राण ऊपरी किरण अर्थात अर्यमा के साथ पृथ्वी पर व्याप्त होते हैं. इन्हें महर्षि कश्यप और माता अदिति का पुत्र माना गया है और देवताओं का भाई. इसके अतिरिक्त उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास स्थान माना गया है. कुछ स्थानों पर इन्हें प्रधान पितृ भी माना गया है. यदि यह प्रसन्न हो जाएं तो पितरों की तृप्ति हो जाती है इसी कारण श्राद्ध करते हुए इनके नाम को लेकर जल दान किया जाता है.

सनातन परंपरा में सूर्य की किरणों को मुख्य रूप से सप्तरश्मियां कहा जाता है, जो सात प्रकार की होती हैं और प्रत्येक का अपना विशिष्ट नाम और महत्व होता है. ये नाम हैं: सुषुम्णा, सुरादना, उदन्वसु, विश्वकर्मा, उदावसु, विश्वव्यचा, और हरिकेश.

सूर्य की सप्तरश्मियों के नाम और उनके संबंध सुषुम्णा: यह किरण चंद्रमा की क्षीण कलाओं को नियंत्रित करती है और आत्मा की चेतना को जगाने में सहायक होती है.सुरादना: यह सूर्य की किरण मंगल ग्रह का निर्माण करती है और शरीर में रक्त संचालन से जुड़ी है, जिससे आरोग्य की प्राप्ति होती है.उदन्वसु: इस किरण से बुध ग्रह का आर्विभाव होता है और यह मनुष्य के मन को शांत रखती है.विश्वकर्मा: इस किरण से बृहस्पति ग्रह का निर्माण होता है, जो ज्योतिष के अनुसार सौभाग्य का कारक माना जाता है.उदावसु: यह किरण शुक्र ग्रह का प्रतिनिधित्व करती है और शारीरिक वीर्य से संबंधित है.विश्वव्यचा: इस किरण से शनि ग्रह की उत्पत्ति मानी जाती है.हरिकेश: यह सूर्य की वह किरण है जो स्वयं दिव्यता का दान करने वाली है और जिसका संबंध जीवन से जुड़ी हर डोर से है.
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